पलायन रोकने की न नीति न प्लान, तो फिर हिमालय दिवस पर कोरे संकल्प क्यों?
उत्तराखंड में हाल में ‘हिमालय को बचाने’
पर केंद्रित जलसे जोश ओ खरोश से मनाए गए। सरकार से लेकर एनजीओ,
सामाजिक संगठनों, स्कूली छात्रों, सरकारी, गैर सरकारी कार्मिकों, पर्यावरणविदों और धर्मगुरुओं की चिंता, चिंतन,
शपथ, संकल्प अपने पूरे शबाब पर रहे। एसी होटल,
कमरों से लेकर स्कूलों के प्रांगण, सरकारी और
गैर सरकारी दफ्तरों में शपथ (संकल्प) लेते चित्र अगले दिन के अखबारों में ‘निखर’ कर सामने आए।
हिमालय दिवस के आयोजनों से एकबारगी ऐसा लगा कि अब हिमालय को बचाने का
विचार निश्चित ही अपनी परिणिति तक पहुंच जाएगा। मगर, यह क्या?
तय तारीखें बीतते ही सूबे में सब कुछ पहले जैसे ढर्रे पर चल निकला।
तो क्या हिमालय को सिर्फ आठ नौ दिन ही बचाना था, उससे पहले
या उसके बाद हिमालय को बचाने की जरूरत ही नहीं?
दरअसल, हिमालय को बचाने की फिक्र तो की जा रही है,
परंतु हिमालय को किस तरह से खतरा है, उसके
समाधान क्या हैं, इस पर सिर्फ बातें ही बातें हो रही हैं।
कौन, कब से उन रास्तों पर आगे बढ़ेगा, क्या
रोड मैप होगा, उसमें सामाजिक सरोकार पर भी फोकस होगा या हवा
हवाई अभियान से इतिश्री कर ली जाएगी। यह सब अभी तक नेपथ्य में ही है। हाल के जश्न
ए हिमालय बचाओ में भी इसी तरह की रस्में पूरी होती दिखी।
खैर! इससे जुड़ा बड़ा सवाल यह है कि क्या हम खाली होते पहाड़ी गांवों,
उजड़ते और आग से झुलसते जंगलों, मंचों पर
भाषणों की जबरदस्त परफारमेंस और स्वयंसेवी संगठनों (एनजीओ) की कागजी कार्यवाहियों
मात्र से हिमालय को बचा लेंगे? जी नहीं! हमें इससे आगे सोचने
के साथ उसके समाधान के लिए जमीन पर भी जुटना होगा।
जानकारों बताते हैं कि उत्तराखंड में 70 के दशक से
शुरू पलायन आज भी यथावत जारी है। राज्य गठन के बाद इसमें और भी तेजी आई। पहाड़ के
करीब 70 प्रतिशत लोग दूसरे राज्यों का रुख कर चुके हैं,
जबकि लगभग 30 फीसदी का तो अपने मूल स्थान से
नाता ही टूट चुका है। पिछले दो दशकों में 25 से 100 वाले गांव पूरी तरह खाली हो गए हैं।
वर्ष 2011 की जनगणना के मुताबिक पहाड़ की आबादी 53 फीसद से घटकर 48 फीसद रह गई। एक अध्ययन के मुताबिक
पलायन करने वाले 52 प्रतिशत आबादी में सर्वाधिक संख्या
युवाओं की रही। जिनकी औसत आयु 30 से शुरू होकर 49 फीसदी तक है। सरकारी आंकड़ों में ही 2.5 लाख घरों
में ताले लटक चुके हैं।
यह सब रोजगार, स्वास्थ्य और शिक्षा के अभाव के चलते
होना माना गया है। यूपी के दौर से अब तक की सरकारों ने कभी भी संजीदगी से पहाड़ों
में रोजगार सृजन की दिशा में सोचा ही नहीं। हर चुनाव के दौरान युवाओं को रोजगार के
जुमले जरूर थमाए गए, उसके बाद उन्हें पूरा करना तो दूर विचार
तक नहीं हुआ। नतीजा, पलायन से सीधा जुड़ा रोजगार इस खाई को
लगातार बढ़ा रहा है।
सरकारें
हिमालय को बचाने की बातें तो हमेशा ही करती रही हैं, मगर
उसके समाधान के लिए न कभी रणनीतियां बनाई, न ही कोई आधारभूत
शोध ही कराया। ताकि पलायन से खाली होते गांवों, हिमालय पर
उनके असर, सुरक्षा में ग्रामीणों की भूमिका आदि पर कोई
निष्कर्ष सामने आ सके, तो फिर आलीशान मंचों पर चमचमाती कैमरा
लाइटों के बीच ‘हिमालय बचाओ’ के इस राग
का क्या औचित्य रह जाता है? सरकारी, गैरसरकारी
चिंतक वर्ग सोचिएगा जरूर!!
आलेख- धनेश कोठारी