मैं गैरसैण हूं.... । राज्य बने हुये 16 बरस बीत
जाने को है, लेकिन आज भी राजधानी
के नाम पर पर पसरी धुंध साफ नहीं हुई। मुझे राजधानी बनाने के सपने को लेकर ही अलग उत्तराखंड राज्य की लड़ाई लड़ी और जीती गई थी। जैसे तैसे राज्य तो मिला, लेकिन राजनीति के शुरवीरों ने मुझे राजधानी घोषित करने की जगह
स्थायी राजधानी चयन आयोग की
बोतल मे बंद कर दिया।
फिर बारी-बारी से आयोग का कार्यकाल बढ़ाया गया। मेरे बाद रायपुर
मे भी विधानसभा भवन को मंजूरी मिली, जो समझ से परे है।
राजनीति के पुरोधाओं ने मेरे नाम को भुनाकर अपनी राजनीति चमकाई है। लेकिन जब मेरे नाम की वकालत करनी होती है, तो वे मौनी बाबा बन जाते हैं। 16 सालों मे ठीक चुनाव से पहले मुझे स्थायी राजधानी बनाने के नाम पर राजनीति की चाशनी में फिटकरी डालकर उबाला जाता है। ताकि मेरे नाम से वोटों की झोली ज्यादा से ज्यादा भरी जा सके। और चुनाव में गैरसैण का मुद्दा लॉलीपॉप ही बना रहे। 16 सालों से मैं इसी तरह से छला जा रहा हूँ। अबकी बार छन-छनकर खबरें आ रही हैं, कि सरकार का अंतिम विधानसभा सत्र मेरे भराड़ीसैण में निर्माणाधीन भवनों मे संचालित होगा। इसी सत्र में राजधानी के नाम पर कुछ बड़ा फैसला भी आयेगा।
इससे एक तरफ राजधानी के नाम पर जहां मेरी उम्मीदों को पंख लग गये हैं, वहीं आशांकित
भी हूँ कि कहीं वर्तमान मे जिस तरह से प्रदेश में गेस्ट टीचर। गेस्ट फार्मासिस्टो को
चुनावी झुनझुना दिया जा रहा है। तो कहीं राजधानी के नाम पर मुझे भी गेस्ट
राजधानी घोषित न कर दिया जाए।
आज मुझे गिर्दा की पंक्तियाँ बरबस ही याद आ रही हैं....
कस होलो उत्तराखंड, कां होली राजधानी,
राग - बागी यों आजी करला आपडी मनमानी ,
यो बतौक खुली- खुलास गैरसैण करुलो !
हम लड़ते रयां भूली, हम लड़ते रूंल !!
राग - बागी यों आजी करला आपडी मनमानी ,
यो बतौक खुली- खुलास गैरसैण करुलो !
हम लड़ते रयां भूली, हम लड़ते रूंल !!
सर्वाधिकार- संजय चौहान, पीपलकोटी, चमोली
गढ़वाल।