मैं पहाड़ हूं (हिन्दी कविता)

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• मदन मोहन थपलियाल ’शैल’

मैं पहाड़ (हिमालय) हूं
विज्ञान कहता है
यहां पहले हिलोरें मारता सागर था
दो भुजाएं आपस में टकराईं
पहाड़ का जन्म हुआ
हिमालय का अवतरण हुआ
सदियों वीरान रहा
धीरे-धीरे 
वादियों और कंदराओं का उद्गम हुआ
गंगा पृथ्वी पर आईं
कंद मूल फलों से धरा का श्रंगार हुआ
सब खुशहाल थे
मेरे ही गीत गुनगुनाते थे
शांत एकांत निर्जन विजन
ऋषि मुनियों को बहुत भाया
देवताओं ने अपनी शरणस्थली बनाई
तपस्वी रम गए प्रभु आराधना में
मनीषियों ने ग्रंथ लिखे
काव्य खंड लिखे
चहुंओर 
संस्कृति औ संस्कृत की ध्वनि गूंजने लगी
वेदों की ऋचाएं गाई जाने लगीं
आक्रमणकारियों ने मेरी शांति भंग कर दी
आततायियों के भय से
मनुज ने पहाड़ों का आश्रय लिया
पहाड़ सैरगाह बन गए
सब खुशहाल थे
मेरे ही गीत गुनगुनाते थे
मैदानी क्षेत्रों में बस्तियां बसने लगीं
आधुनिक चकाचौंध ने 
मेरे अस्तित्व को कम करके आंकना शुरू कर दिया
फिर क्या था
चल पड़े दरिया के मानिंद
मैदानों के विस्तार में अपने को खोने
बस वहीं के हो गए
नौकर बन गए
श्रम, पसीना, मनोबल सब बेच दिया
भौतिक सुख और दो जून रोटी के लिए
बाजार हो गए
योग्यतानुसार दाम तय होने लगे
पैसे की हवस का जादू सिर चढ़कर बोला
सब अधिकार की लड़ाई लड़ने लगे
लेकिन सब व्यर्थ
पलायन रुका नहीं
बहाने लाख बने
मैं आज भी वहीं खड़ा हूं
शांत एकांत सा
अपनों की प्रतीक्षा में
मैंने नहीं, उन्होंने मुझे ठुकराया
मेरी छाती में धमाचौकड़ी करने
फिर आओगे न
मैं सदियों प्रतीक्षा करूंगा
तुम्हारी पग ध्वनि सुनने को उत्सुक
तुम्हारा अपना वैभव
पहाड़ (हिमालय)

पेंटिंग फोटो - ईशान बहुगुणा

Comments

  1. माँ को छोड़ दूर आखिर कब तक रह सकते हैं उसके लाडले, एक दिन खींच ही लाती हैं माँ का प्यार अपनी ओर उन्हें
    बहुत सुन्दर रचना

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