(प्रख्यात लोकगायक/साहित्यकार श्री नरेंद्र सिंह नेगी से फोन पर साहित्यकार
श्री भीष्म कुकरेती की बातचीत)
भीष्म कुकरेती - नेगीजी नमस्कार आज पौड़ी में या कहीं और ?
नरेंद्र सिंह नेगी- नमस्कार कुकरेती जी। आज मैं अभी एक समारोह हेतु
श्रीनगर आया हूं। कहिये।
भीष्म कुकरेती- नेगीजी! गढ़वाली-कुमाउनी फिल्म उद्योग पर बातचीत करनी
थी। समय हो तो ..
नरेंद्र सिंह नेगी- हां कहिये! वैसे गढ़वाली फिल्में कुमांउनी फिल्मों
के मुकाबले अधिक बनी हैं। जबकि कुमाऊं में अंतरराष्ट्रीयस्तर के राजनेता, वैज्ञानिक,
सैनिक अधिकारी, संगीतकार, चित्रकार, साहित्यकार, कलाकार हुए हैं किन्तु यह एक बिडम्बना
ही है कि कुमाउनी फिल्में ना तो उस स्तर की बनी और ना ही संख्या की दृष्टि से समुचित
फ़िल्में बनीं।
भीष्म कुकरेती- गढ़वाली व कुमांउनी फिल्मों का स्तर कैसा रहा है?
नरेंद्र सिंह नेगी- देखा जाए तो अमूनन स्तरहीन ही रहा है। हिंदी
के कबाडनुमा फिल्मों की नकल रही है गढ़वाली व कुमांउनी फ़िल्में। असल में उत्तराखंडी
फिल्म उद्योग में सांस्कृतिक और सामजिक स्तर के
अनुभवी लोग आये ही नहीं। जब आप क्षेत्रीय फिल्म या एलबम बनाते हैं तो पहली मांग
होती है कि वह क्षेत्रीय सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनैतिक वस्तुस्थिति को दिखाये। किन्तु
शुरू से ही गढ़वाली-कुमांउनी फ़िल्में या तो भावनात्मक दबाब या रचनाकारों का हिंदी फिल्म
उद्योग में आने के लिए बनायी गयीं और यही कारण है कि कुमांउनी-गढ़वाली फिल्मों ने वैचारिक स्तर व कथ्यात्मक स्तर पर कोई विशेष क्या कोई छाप
छोड़ी ही नहीं। असल में हिंदी की सडक छाप फिल्मों की भौंडी नकल ने कुमांउनी-गढ़वाली फिल्मों
को लहूलुहान किया।
भीष्म कुकरेती- आप क्यों हिंदी फिल्मो पर जोर दे रहे हैं?
नरेंद्र सिंह नेगी- कुकरेती जी! हिंदी फिल्मों में कमोवेश हिंदी
भाषा भारतीय है पर कोई भी हिंदी फिल्म हिन्दुस्तान की संस्कृति और समाज का प्रतिनिधित्व
नहीं करती और जब हम डी ग्रेड हिंदी फिल्मों की भौंडी नकल करेंगे तो हमें कबाड़ ही मिलेगा
कि नहीं?
भीष्म कुकरेती- हां यह बात तो सत्य है कि अधिसंख्य हिंदी फ़िल्में
पलायनवादी याने एक अलग किस्म के समाज को दिखलाती रही हैं।
नरेंद्र सिंह नेगी- और जब गढ़वाली-कुमांउनी रचनाकार एक काल्पनिक समाज
की प्रतिनिधि हिंदी फिल्मो की उलजलूल नकल पर फिल्म बनाएगा तो विचारों के स्तर पर बेकार
ही फ़िल्में बनेंगी। आप ही ने एक उदाहरण दिया था की ’कभी सुख कभी दुःख’ फिल्म में गढ़वाली
गावों में डाकू घोड़े में चढ़कर डाका डाल रहे
है.. अभी एक गढ़वाली डीवीडी फिल्म रिलीज हुई,
जिसमें गढ़वाल के गांव में खलनायक की टीम दुकानदारों से हफ्ता वसूली कर रही है।
अब एक बात बताइये! गढ़वाल या कुमाऊं के गावों में आज भी साहूकारी व दुकानदारी के अति
विशिष्ठ सामजिक नियम हैं और दुकानदार समाज का उसी तरह का सदस्य है, जिस तरह एक लोहार
या पंडित।यदि कोई दुकानदारों से हफ्तावसूली करे तो क्या गांव वाले हिंदी फिल्मों की
तरह चुप बैठ सकते हैं? मैदानी और पहाड़ों में सामाजिक व मानसिक दोहन (एक्सप्लवाइटेसन)
बिलकुल अलग-अलग किस्म के हैं। फिर इस तरह की बेहूदगी गढ़वाली-कुमांउनी फिल्मों में दिखाई
जायेगी तो ऐसी फ़िल्में ना तो वैचारिक दृष्टि से ना ही उद्योग की दृष्टि से दर्शकों
को लुभा पाएगी। प्यार के मामले में भी संवेदनशीलता की जगह फूहड़ता... इश्क को फिल्मों
में रूमानियत की जगह अजीब और अनदेखा नाटकीयता से फिल्माया जाता है।
भीष्म कुकरेती- कई लोगों ने मुझसे बात की कि यदि गढ़वाली-कुमांउनी
फिल्मों को पटरी पर लाना है तो उन्हें अंतरराष्ट्रीयस्तर की वैचारिक फ़िल्में बनानी
पड़ेंगी।
नरेंद्र सिंह नेगी- जी हां मैं भी इसी विचार का समर्थक हूं कि जब
तलक कुमांउनी-गढ़वाली फिल्मों में सत्यजीत रे सरीखे समाज और संस्कृति से जुड़े संवेदनशील
रचनाकार नहीं आयेंगे तब तक इसी तरह की हिंदीनुमा क्षेत्रीय भाषाओं में बनेंगी। सत्यजीत
रे ने बंगाली फिल्मों को बंगाली बाणी दी। मै एक उदाहरण देना चाहूंगा कि किस तरह हमारे
क्षेत्रीय फिल्म रचनाकार हिंदी फिल्मों के मानसिक गुलाम हैं। मैंने एक गढ़वाली फिल्म
में म्यूजिक व बैक ग्राउंड म्यूजिक दिया। लड़ाई के एक दृश्य में मैंने डौंर-थाली से
डौंड्या नर्सिंग नृत्य संगीत शैली में बैकग्राउंड म्यूजिक दिया। सारे दिनभर मुंबई के
एक स्टूडियो में मैंने यह म्यूजिक रिकॉर्ड किया। पर जब मैंने फिल्म देखी तो वह बैकग्राउंड
म्यूजिक गायब था व हिंदी फिल्मों के स्टॉक म्यूजिक का ढिसूं-ढिसूं म्यूजिक डाला गया
था।
भीष्म कुकरेती- आखिर क्या कारण है कि गढ़वाली-कुमांउनी फ़िल्मी रचनाकार हिंदी फिल्मों के नकल कर रहे हैं।
नरेंद्र सिंह नेगी- प्रथम कारण, तो गढ़वालियों और कुमांउनी फिल्म
रचनाकारों व समाज दोनों को काल्पनिक हिंदी फिल्मों का वातावरण मिलता है तो हर क्षेत्रीय
फिल्म रचनाकार इस हिंदी फिल्म के तिलस्म को तोड़ पाने में असमर्थ ही है।
भीष्म कुकरेती- इस समस्या का
निदान?
नरेंद्र सिंह नेगी- जब तक कुमांउनी-गढ़वाली फिल्म उद्यम में संस्कृति
व समाज को पहचानने वाले संवेदनशील कथाकार, पटकथाकार व फिल्म शिल्पी एक साथ नहीं प्रवेश
करेंगे तो विचारों की दृष्टि से गढ़वाली-कुमांउनी फिल्म व एलबम इसी तरह की काल्पनिक
ही होंगी। फिल्म कई कलाओं व तकनीक का अनोखा संगम है अतः संवेदनशील रचनाकारों की टीम
ही विचारों की दृष्टि से इस खालीपन को दूर कर सकते हैं।
भीष्म कुकरेती- नेगीजी आजकल गढ़वाली-कुमाउनी फिल्म-एलबम उद्योग का
क्या हाल है?
नरेंद्र सिंह नेगी- कुकरेती जी बहुत ही बुरा हाल है। नई टेक्नोलॉजी
याने इंटरनेट और डीवीडी से पैनड्राइव पर डाउनलोडिंग से गढ़वाली-कुमाउनी फिल्म-एलबम उद्योग
ठप ही पड़ गया है।
भीष्म कुकरेती- अच्छा इतना बुरा हाल है?
नरेंद्र सिंह नेगी- अजी! इतना बुरा हाल है कि कई म्यूजिक कम्पनियों
ने म्यूजिक उद्योग बंदकर तंबाकू-गुटका पौच बेचने का धंधा शुरू कर दिया है।
भीष्म कुकरेती- क्या कह रहे हैं आप?
नरेंद्र सिंह नेगी- हां जब क्षेत्रीय म्यूजिक से मुनाफ़ा ही नहीं
होगा तो म्यूजिक कंपनियां दूसरा धंधा शुरू करेगे ही कि नहीं?
भीष्म कुकरेती- पर कॉपीराइट के नियम तो हैं?
नरेंद्र सिंह नेगी- भीष्म जी! नियम तो हैं पर न्यायिक प्रक्रिया
इतनी जटिल और लम्बी है कि कोई भी उद्योगपति न्यायालयों के झंझटों में नहीं पड़ना चाहता।
भीष्म कुकरेती- फिर कुछ ना कुछ समाधान तो ढूंढना ही होगा।
नरेंद्र सिंह नेगी- अभी तो फिल्मकर्मियों को नई तकनीक द्वारा असंवैधानिक
तरीकों से नकल का कोई तोड़ नहीं मिल रहा है।
भीष्म कुकरेती- आपका मतलब है अब म्यूजिक कम्पनियां गढ़वाली-कुमाउनी
फिल्म-एलबम निर्माण कर ही नहीं पाएंगी?
नरेंद्र सिंह नेगी- नहीं टी सीरीज जैसी बड़ी कम्पनियों के लिए तो
अभी भी यह बाजार मुनाफ़ा दे सकता है। क्योंकि उन्हें वितरण के लिए केवल गढ़वाली-कुमाउनी
फिल्म-एलबमों पर निर्भर नहीं रहना पड़ता। फिर कुछ छोटी याने आज आई कल गई कम्पनियां मर-
मरकर इस उद्योग को चलाती रहेंगी।
भीष्म कुकरेती- मतलब व्यापार की दृष्टि से आज का गढ़वाली-कुमाउनी
फिल्म-एलबम निर्माण घाटे का सौदा है।
नरेंद्र सिंह नेगी- आज की स्थिति से तो यही लगता है।
भीष्म कुकरेती- नेगी जी ! मैं सोच रहा था कि नई तकनीक से क्षेत्रीय
भाषाओं की फिल्मों को फायदा होगा किन्तु...
नरेंद्र सिंह नेगी- देखिये इंटरनेट और डाउनलोडिंग तकनीक से क्षेत्रीय
भाषाई म्यूजिक या फ़िल्में दूर-दूर भारत के शहरों में व विदेशों में बसे प्रवासियों
को सुलभ हो गईं। यह एक बहुत फायदा भाषा को हुआ किन्तु इससे फिल्म और म्यूजिक एलबम निर्माण
तो ठप हो गया कि नहीं? जब उत्पादन का निर्माण ही नहीं होगा तो फिर भविष्य में बिखरे
उत्तराखंडियों को कहां से फिल्म दर्शन व संगीत उपलब्ध होगा?
भीष्म कुकरेती- मतलब सामजिक जुम्मेवारी यह है कि उत्तराखंडी लोग
स्वयं ही अनुशासित हो कापीराइट का उल्लंघन ना करें और नकली डीवीडी ना खरीदें!
नरेंद्र सिंह नेगी- आदर्शात्मक हिसाब से सही है किन्तु...
भीष्म कुकरेती- इसका अर्थ हुआ कि राज्य सरकार को कुछ करना चाहिए?
नरेंद्र सिंह नेगी- किस सरकार की बात कर रहे हैं आप? जिस राज्य के
एक मुख्यमंत्री संस्कृत को राजभाषा घोषित करें और दूसरे मुख्यमंत्री उर्दू को राजभाषा
घोषित करें? पर दोनों राष्ट्रीय दलों के मुख्यमंत्रियों को लोकभाषाओं की कतई चिंता
ना हो। उस राज्य में आप क्षेत्रीय भाषाई फिल्म-एलबम उद्योग की सरकारी सहयोग-प्रोत्साहन
की कैसे आशा कर सकते हैं? हां कोई फिल्म अकादमी बने तो...
भीष्म कुकरेती- तो वहां समाज सरकार पर दबाब क्यों नहीं बनाता।
नरेंद्र सिंह नेगी- आप सरीखे संवेदनशील लोग इधर-उधर बिखरे हैं। मै
या अन्य रचनाकार सभाओं में फिल्म उद्योग को सरकारी संरक्षण, प्रोत्साहन की बात अवश्य
करते हैं किन्तु हमारी राजनैतिक जमात सोई नजर आती है।
भीष्म कुकरेती- पर कुछ ना कुछ उपाय तो अवश्य करने होंगे
नरेंद्र सिंह नेगी- हां! फिल्म रचनाकार, कलाकार, समाज व सरकार सभी
इस दिशा में एक सोच से काम करें तो यह उद्योग बच सकता है।