उत्तराखंड में भी फिल्म पत्रकारिता जरूरीः मदन डुकलाण

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(गढ़वाली-कुमांउनी फिल्म समीक्षा ने अभी कोई विशेष रूप अख्तियार नहीं किया है। इस विषय पर गढ़वाली साहित्यकार,  संपादक, नाट्यकर्मी, अभिनेता श्री मदन मोहन डुकलाण से फोन पर वरिष्ठ साहित्यकार भीष्म कुकरेती की बातचीत)

भीष्म कुकरेती- गढ़वाली फिल्म पत्रकारिता के बारे में आपका क्या ख़याल है?
मदन डुकलाण- जी, जब प्रोफेस्नालिज्म के हिसाब से गढ़वाली-कुमाउनी फिल्म निर्माण ही नहीं हो पाया तो गढ़वाली-फिल्म पत्रकारिता में भी कोई काम नहीं हुआ।

भीष्म कुकरेती- पर समाचार पत्रों में गढ़वाली-कुमाउनी फिल्मों के बारे में समाचार, विश्लेष्ण तो छपता ही है!
मदन डुकलाण- कुकरेती जी! अधिकतर सूचना या विश्लेषण फिल्मकारों द्वारा पत्रकारों को पकड़ाया गया होता है, जो आप पढ़ते हैं।

भीष्म कुकरेती- आप गढ़वाली फ़िल्मी पत्रकारिता की कितनी आवश्यकता समझते हैं?
मदन डुकलाण- गढ़वाली-कुमाउनी फिल्मों के लिए विशेष पत्रकारिता की  आवश्यकता अधिक है। गढ़वाली-कुमाउनी फिल्म उद्योग को बचाने और इसे प्रोफेसनल बनाने के लिए गढ़वाली-कुमाउनी फिल्म जर्नलिज्म की अति आवश्यकता है।

भीष्म कुकरेती- आधारभूत फिल्म विश्लेषण पर ही बात की जाय कि किस तरह एक फिल्म का विश्लेषण किया जाना चाहिए?
मदन डुकलाण- सर्वप्रथम तो पहले ही खंड में फिल्म के बारे में एक पंक्ति में विश्लेषक की राय या विचार इंगित हो जाना चाहिए।

भीष्म कुकरेती- जी हां! फिल्म समालोचना की यह प्रथम आवश्यकता भी है। इसके बाद?
मदन डुकलाण- सारे आलेख में समालोचनात्मक रुख होना ही चाहिए।

भीष्म कुकरेती- जी और ..?
मदन डुकलाण- पत्रकार विश्लेषक को फिल्म के सकारत्मक व नकारात्मक पक्षों को पाठकों के सामने रखना चाहिए।

भीष्म कुकरेती-अपाठकों के सामने क्या-क्या लाना आवश्यक है?
मदन डुकलाण- तुलनात्मक रुख फिल्म समालोचना हेतु एक आवश्यक शर्त है कि पाठक के सामने फिल्म को किसी अन्य फिल्म या विज्ञ विषय के साथ जोड़ा जाय या फिल्म की तुलना की जाय जिससे पाठक फिल्म समालोचना के साथ जुड़ सके।

भीष्म कुकरेती- जी हां, तुलनात्मक रुख की उतनी ही आवश्यकता है जितनी फिल्म के बारे में राय। फिल्म  विश्लेषक को कथा के बारे में कितना बताना जरूरी है?
मदन डुकलाण- फिल्म विश्लेषक को कथा की सूचना देनी जरूरी है, किन्तु अधिक भी नहीं। जो सीक्रेट/गोपनीय पक्ष हों उन्हें ना बताकर उन गोपनीय बातों के प्रति पाठक का आकर्षण पैदा कराना चाहिए।

भीष्म कुकरेती-जी !
मदन डुकलाण- फिर टैलेंट, प्रतिभा, कौशल को समुचित या अनुपातिक प्रतिष्ठा, प्रशंसा या देनी चाहिए।

भीष्म कुकरेती- जी हां, प्रतिभा के बारे में ही फिल्म विश्लेषण का एक मुख्य कार्य है!
मदन डुकलाण- विश्लेषण बातचीत विधि में हो तो सर्वोत्तम।

भीष्म कुकरेती-हां बातचीत विधि पाठकों को आकर्षित करती है और बातचीत की स्टाइल पाठकों की मनोवृति के हिसाब से ही होनी चाहिए!
मदन डुकलाण- समीक्षक को फिल्म या एलबम को शब्दों द्वारा फिल्म-एलबम के वातावरण को पुनर्जीवित करना ही सही समीक्षा की निशानी है।

भीष्म कुकरेती-जी! पाठकों को कुछ ना कुछ आभास हो जाना चाहिए की फिल्म या एलबम का वातावरण कैसा है!
मदन डुकलाण- समीक्षक को अपने विचार नहीं थोपने चाहिए।

भीष्म कुकरेती-  आपका अर्थ है कि फिल्म समीक्षा के वक्त समीक्षक को किसी वाद को आधार बनाकर समीक्षा नहीं करनी चाहिए?
मदन डुकलाण- ईमानदारी तो समीक्षा में हो, किन्तु तुच्छता नहीं होनी चाहिए।

भीष्म कुकरेती- हां यह बात भी फिल्म समीक्षा के लिए आवश्यक आयाम है!
मदन डुकलाण- फिल्म समीक्षक को ध्यान रखना चाहिए कि अपने पाठकों और समीक्षीत फिल्म के प्रति बराबर उत्तरदायी है।

भीष्म कुकरेती-हां समीक्षक कई उत्तरदायित्व सम्भालता है। 
मदन डुकलाण- समीक्षा संक्षिप्त पर व्यापक प्रभाव देय होनी ही चाहिए।

भीष्म कुकरेती-जी!
मदन डुकलाण- समीक्षा किसी को अनावश्यक प्रभाव डालनी वाली न हो याने विद्वतादर्शी न हो।

भीष्म कुकरेती- गढ़वाली-कुमाउनी फिल्मों के समीक्षक का अन्य  भाषाओं जैसे हिंदी फिल्म समीक्षा से अधिक उत्तरदायित्व है, इस पर आपका क्या कहना है?
मदन डुकलाण- क्षेत्रीय फ़िल्में या नाटक हमेशा एक ना एक संक्रमणकाल से गुजरते रहते हैं, अतः क्षेत्रीय कला समीक्षक उस कला को पाठकों, दर्शकों की रूचि बनाये रखने का उत्तरदायित्व भी निभाता है।

भीष्म कुकरेती- इसीलिए आप कहते हैं कि गढ़वाली-कुमांउनी फिल्म व एलबमों के लिए एक विशेष फिल्म समीक्षा संस्कृति आवश्यक है?
मदन डुकलाण- जी हां, गढ़वाली-कुमांउनी फिल्म-एलबम समीक्षा की विशेष संस्कृति आवश्यक है।
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प्रस्तुति- भीष्म कुकरेती

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