सिर्फ आलोचना करके तो नहीं जीत सकते

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उत्तराखंड क्रांति दल खुद को अपनी आंदोलनकारी संगठनकी छवि से मुक्त कर एक जिम्मेदार और परिपक्व राजनीतिक पार्टी के रूप में स्थापित करना चाहता है। इसके पीछे निश्चित ही उसके तर्क हैं। जिन्हें अनसुना तो कम से कम नहीं किया जा सकता है। मगर, अतीत में आंदोलनकारी संगठन और फिर सियासी असफलताओं के आलोक में उसके लिए मनोवांछित कायाकल्पआसान होगा?
यूकेडी जिस फार्मेट में अब सामने आना चाहती है, उसका यह नया अवतार जनमन को स्वीकार्य होगा? राज्य के मौजूदा सियासी परिदृश्य में कोई स्पेस बाकी है? खासकर तब जब 17 बरसों में कांग्रेस और भाजपा ने जनता के बीच खुद को लगभग एक-दूसरे का पूरक मनवा लिया हो।

पृथक उत्तराखंड की लड़ाई में उक्रांद के संघर्ष को कौन भला नकार सकता है। 1994 के राज्य आंदोलन का अगवा भी लगभग वही रहा। परिणाम निकला और नौ नवंबर सन् 2000 में आखिरकार अलग राज्य की नींव पड़ी। तब नेशनल मीडिया तक ने उत्तराखंड में यूकेडी को तीसरी ताकत के तौर पर विशेष तौर से पेश किया। अलग राज्य में सन् 2002 के पहले विधानसभा चुनाव में दल को जनता ने चार सीटें दीं। किंतु, वह अगले पांच साल में खुद को एक राजनीतिक दल के तौर पर नहीं उबार सकी।

वर्ष 2007 में एक सीट और घटकर तीन ही रह गई। सबक तब भी नहीं लिया और समूची पार्टी भाजपा के आगे लमलेट हो गई। हालांकि तब भाजपा को नौ बिंदुओं पर सहमति के आधर पर समर्थन देने का तर्क दिया गया। जो आज भी अधूरे हैं। कैबिनेट में शामिल होने के बाद भी दिवाकर भट्ट (जो कि वर्तमान में पार्टी अध्यक्ष हैं) पार्टी को इसका लाभ नहीं दिला सके। तीसरी विस (2012) में बमुश्किल एक सीट मिली, तो एकमात्र विधायक प्रीतम सिंह पंवार पूरे पांच साल कांग्रेस की गोद में बैठे रहे।

इससे पूर्व और 17 साल के वक्फे में लीडरशिप के बीच वर्चस्व के लिए संघर्ष, पार्टी में बिखराव, नए धड़ों का गठन सबकुछ हुआ। नतीजा, जनता में बची कुछ प्रतिशत सिंपैथीभी 2017 आने तक जाती रही। पहले ही पार्टी छोड़ चुके प्रीतम सिंह पंवार निर्दलीय विस पहुंचे, तो भाजपा में शामिल दिवाकर भट्ट और ओमगोपाल रावत ने टिकट न मिलने पर चुनाव मैदान में निर्दलीय उतरने पर हार का सामना किया।

खैर, इस फजीहत ने बिखरे धड़ों को फिर से एकमंच आने को मजबूर किया। जिसकी कमान फील्ड मार्शल दिवाकर भट्ट को मिली है। जबकि काशी सिंह ऐरी, त्रिवेंद्र पंवार, पुष्पेश त्रिपाठी ने संयोजक के रूप में नई जिम्मेदारियों को संभाला है। अब शीर्ष नेतृत्व गलतियों को स्वीकार कर अपने चेहरे-मोहरे को एक सियासी दल के रूप में बदलने की बात कह रहा है। पार्टी पर्वतीय जिलों को फोकस में रखकर गांवों तक सांगठनिक विस्तार और खासकर युवाओं को यूकेडी के करीब लाने की रणनीति की बात पर काम कर रही है। साथ ही उसने अपनी भाषा और तौर तरीकों को भी रूपांतरित करने की ठानी है।

मगर, इससे इतर एक बात कि वह आज भी विरोधियों की आलोचनाओं के मायाजाल से बाहर नहीं निकल पा रही है। भाजपा-कांग्रेस के विरूद्ध आलोचना के इस राग में उसके पुराने सेंटेंस ही दोहराए जा रहे हैं। जबकि पिछले 17 बरसों में राज्य में घोटालों की लिस्ट लंबी हुई है। खनन, शराब, शिक्षा और यहां तक कि नीतियों को प्रभावित करने में माफियातंत्र पहले से अधिक हावी दिखता है। बेपटरी कानून व्यवस्था के चलते उत्तराखंड अपराधियों की शरणस्थली बनने लगा है। पलायन ने पहाड़ी गांवों को खाली कर दिया, तो मैदान बाहर से आई भीड़ से पट रहे हैं।

बावजूद इसके यूकेडी के तेवरों में मुखरता नहीं दिख रही। गैरसैंण स्थायी राजधानी क्यों के युवाओं के सवाल पर वह अपना पक्ष और तर्क मजबूती से नहीं रख पा रही है। पहाड़ों में स्वास्थ्य, शिक्षा, सड़क, बिजली, पानी, खेती, रोजगार आदि के लिए उसने कोई ब्लू पिं्रट तैयार किया है या नहीं, कोई नहीं जानता। तकनीकी युग और प्रोपगंडे के इस दौर में वह भाजपा और कांग्रेस का मुकाबला किस तरह करेगी, इसपर उसकी कोई तैयारी नहीं दिखती है। वह सिर्फ आलोचनाओंके बूते चुनावों जीतने का ख्वाब देख रही है। जिसके कामयाब होने में फिलहाल तो शंका है।

आलेख- धनेश कोठारी 

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